31 मार्च 2010

इसलिए हम आंसू बहाते रहे


वह नदी नहीं थी आंसू थे मेरे 
जिस पर मेरे दोस्त कश्ती चलाते रहे  
मंजिल मिले उन्हें यही चाहत थी मेरी चाहत 
इसलिए हम आंसू बहाते रहे |

....संजय भास्कर  ....

29 मार्च 2010

दोस्त तो सारे आजमाए हुए है


यु ही मुस्कुराने की आदत बना राखी है हमने 
लाखो गम जी सीने में छुपाये हुए है 
अब खुद पे ऐतबार करके देखेंगे ,हम 
दोस्त तो सारे आजमाए हुए है  | 

......संजय भास्कर.....

27 मार्च 2010

यादें बचपन की




अक्सर आ जाती है याद
मुझे बचपन की बातें | 
कितने सुहाने दिन थे वो कितनी मीठी बातें | 
ना घर की चिंता थी
न खाने पिने की फिकर , 
कूदते थे दिन भर कभी इधर कभी उधर | 
ना खवाबो मै हकीकत थी न दिल मै मलाल , 
वो नंगे पाँव दौड़ना याद है मुझे 
वो चोरी से फल तोड़ना याद है मुझे 
शाम को देर से आना याद है मुझे
वो गाँव की गलियां और चोराहे याद है मुझे 
माँ की डाट से बचने का बहाना याद है 
मुझे छुट्टी होते ही शोर मचाना याद मुझे भूल नही सकता 
उन यादो को जो दिल मै बसी है
मेरे उन यादो को याद करना याद है मुझे  ....|



25 मार्च 2010

वादा करो छोडोगी नहीं तुम मेरा साथ.......महफूज़ अली जी की कलम से


तन्हाई में जब मैं अकेला होता हूँ,
तुम पास आकर दबे पाँव चूम कर मेरे गालों को, 
मुझे चौंका देती हो, मैं ठगा सा, तुम्हें निहारता हूँ, 
तुम्हारी बाहों में, मदहोश हो कर खो जाता हूँ. 
सोच रहा हूँ..... कि अब की बार तुम आओगी, 
तो नापूंगा तुम्हारे प्यार की गहराई को.... आखिर कहाँ खो जाता है
मेरा सारा दुःख और गुस्सा ? पाकर साथ तुम्हारा, 
भूल जाता हूँ मैं अपना सारा दर्द देख कर तुम्हारी मुस्कान और बदमाशियां.... मैं जी उठता हूँ, जब तुम, 
लेकर मेरा हाथ अपने हाथों में,
कहती हो....... मेरे बहुत करीब आकर कि रहेंगे हम साथ हरदम...हमेशा....




महफूज़ भाई तो गायब है  चलो हम ही उनकी एक पुरानी रचना  सभी ब्लोगर मित्रो  को पढवाते है 

महफूज़ अली जी की कलम से ये पंक्तिया आप तक 
पहुंचा रहे है 


संजय भास्कर

24 मार्च 2010

आजादी के महानायक





मेरा रंग दे बसंती चोला, माहे रंग दे। इन लाइनों को सुनने के बाद देश पर जान कुर्बान करने वाले भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की यादें ताजा हो जाती हैं। दो साल पहले भी एक फिल्म रंग दे बसंती के जरिए देश के युवाओं में भ्रष्टाचार आदि से लड़ने की अलख जगाने का प्रयास किया गया। युवाओं के इस देश में कुछ हलचल भी दिखी, लेकिन कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखा। सच तो यह है कि आज एक बार फिर ऐसे ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू जैसे युवाओं की जरूरत है जो भारत को भ्रष्टाचार, अपराध समेत कई समस्याओं से निजात दिला सकें। भारत मां के लिए हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूमने वाले इन तीनों क्रांतिकारियों को 23 मार्च 1931 को ही फांसी दी गई थी।
आजादी के इन महानायकों को भी हम भी याद करते हैं |


संजय भास्कर  



23 मार्च 2010

स्टार ब्लॉगर. महफूज़..जो कई दिनों से लापता है अपने महफूज़ जिधर हैं महफूज़ हैं

 महफूज़ है एक स्टार ब्लॉगर...

खुशदीप जी का ब्लॉग पड़कर पता चला

 महफूज़ भाई  लापता है

 

 खूबसूरती के मामले में हैंडसम

..

 

लाल टी शर्ट में सजे ये महाशय आखिरी बार सार्वजनिक तौर पर इस महीने की 14 तारीख को जबलपुर में देखे गए....हर तरफ चर्चा है महफूज़ भाई  लापता है  आज कल ये चर्चा का विषय बना हुआ  है फ़ोन भी नहीं मिल रहा है. उनका  अपने महफूज़ जिधर हैं महफूज़ हैं

 


 


20 मार्च 2010

7 is a Great No.



7 is a Great  No.

U KNOW Y !
7  Colors Make…..….RAINBOW 

7  Sur 
Make……..…. MUSIC

7 Days
Make ……….WEEK

7 Round 
Make…...LIFE PARTNER
and
Most Precious Things

7 Letters make ...…..FRINEDS.............

19 मार्च 2010

फूल इंसानों से ज्यादा खूबसूरत होते है ,
लेकिन कुछ इंसान फूलो से भी ज्यादा   
खुबसूरत होते है ,
जैसे की आप सभी मेरे ब्लोगेर्स मित्रो 

17 मार्च 2010

मजबूत नींव के कमजोर रिश्ते

मजबूत नींव के कमजोर रिश्ते


एक या दो जेनरेशन यानी कि पीढि़यों के बीच के बीच अंतर के फासले को जेनरेशन गैप कहते है। आम भाषा में तो ये सिर्फ उम्र के फासले के रूप में ही नजर आता है। लेकिन ये सिर्फ उम्र का फासला नहीं होता है। ये सोच, पसंद, नापसंद, जिंदगी जीने के अंदाज, रहन-सहन और न जाने कितनी ही चीजों का फासला होता है। यह वह कारण है जिसकी वजह से अभिभावक अपने बच्चों को और बच्चे अपने अभिभावकों को समझ नहीं पाते।
जिम्मेदार कौन-
कई बार इन बातों को सोच कर मन में ख्याल आता है कि आखिर इस जेनरेशन गैप का जिम्मेदार कौन है। वो अभिभावक जो सदियों से अपनी सोच के सहारे एक सफल जिंदगी जीते आये है। जो ये नहीं चाहते जिन रास्तों पर चल कर उन्होंने ठोकरे खाई है, वहां पर उनके बच्चे भी चल कर ठोकर खाये और टूटे। या फिर वो युवा जो आज की तेज रफ्तार जिंदगी से कदम से कदम मिलाकर चलना चाहते है। जो अपने हर रिश्ते को साथ लेकर चलने की चाहत रखते है। जिनके लिए उनके पेरेट्स के साथ-साथ दोस्त, कलिग्स भी मायने रखते है। जो ढलती उम्र में ये नहीं कहना चाहते 'काश, मैंने ये किया होता..' जो अपनी जिंदगी से इस 'काश' शब्द को मिटा देने की चाहत रखते है।
क्यों नहीं समझ पाते-
जेनरेशन गैप का एक बहुत बड़ा कारण कम्युनिकेशन गैप है। आजकल के युवा अपने अभिभावकों से ज्यादा अपने दोस्तों को तरजीह देते है। उन्हे खुद के ज्यादा करीब पाते है। पर जब भी कुछ डिसकस करने बैठो खत्म बहस से ही होता है, तो इससे बेहतर तो यही है न कि उनको ज्यादा इंवाल्व ही न किया जाय। जब हम झूठ बोलते है, तो उन्हें सच लगता है और सच बोलते है तो झूठ। कुछ भी कर लो उन्हे अपनी बात समझाना नामुमकिन है। क्या ये जरूरी है कि जो हमारे लिए इम्पोर्टेस रखे वो उनके लिए भी रखे। नहीं न जब हम ये शर्त नहीं रखते तो फिर वो क्यों रखते है। वो हमें समझने की कोशिश ही नहीं करते। अपनी ही बात पर अड़े रहते है। हमारी बात सुनते तो है, पर समझते नहीं।'
माँ बाप कहते है  कि 'हमें पता है कि बच्चों के लिए क्या सही है और क्या गलत क्योंकि हमें जिंदगी का तजुर्बा है। हम नहीं चाहते जो गलती हमने की वे भी वहीं करें और फिर पछताए। लेकिन बच्चे तो बात ही नहीं सुनते।' ये दोनों ही पीढ़ी अपनी-अपनी जगह सही है। दोनों की अपनी सोच है जो आपस में कहीं भी मेल नहीं खाते है। क्योंकि अभिभावक अपनी परंपराओं का दामन नहीं छोड़ पा रहे |
बच्चो के जवाब पर उनकी  मम्मी दंग रह जाती । कब कहां, कैसे ओवर कान्फिडेस होना रूडनेस बन गया।  'बहुत सोचने पर लगा शायद हम ने ही उसे इतने दूर चले जाने की इजाजत दी थी। हर जगह बच्चों की च्वाइस को तवज्जाों दो तो वे आपको ही एक दिन गलत ठहरा देता है।'
वास्तव में, दिल कचोट उठता है माता-पिता का जब उन्हे अपने बच्चों से ऐसा व्यवहार मिलता है। बचपन से जब बच्चों को अपनी पसंद की चीजें चुनने की आजादी दे दी जाती है, ऐसे में यह कोई आश्चर्य नहीं कि बड़े होने पर वही बच्चे पेरेंट्स की च्वाइस को ही रिजेक्ट कर दें।
हर घर में बच्चों का अलग कमरा होता है। जहां उनकी जरूरत की सारी चीजें सुविधा के लिए रख दी जाती है। पढ़ना हो या-सोना उन्हे कमरे से बाहर जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। यहां तक की फुर्सत मिली तो इंटरनेट या दोस्तों से हो रही मोबाइल फोन पर बातचीत कमरे के बाहर कदम नहीं रखते। ऐसे में धीरे-धीरे वहीं कमरा उनकी छोटी-सी दुनिया बन जाता है। 'प्राइवेसी' अहम हो जाती है। जिसे लांघने की इजाजत किसी को नहीं।
बच्चों के पास यदि समय होता है तो वे टीवी देखते है। टीवी, नेट, मोबाइल, पढ़ाई के बीच बसी इनकी अपनी दुनिया सबसे अहम है। यहां पेरेंट्स को यह सोचने की जरूरत है कि क्या जो आजादी आज वे अपने बच्चों को दे रहे है कल क्या उसकी कीमत चुकाने को वे तैयार हैं? आज के बच्चे मानसिक व भावनात्मक रूप से पिछली जेनरेशन से अधिक मजबूत है। ऐसे में यह कहना तो ठीक नहीं कि उन्हे दी गयी आजादी कल को महंगी पड़ेगी। मगर हमें बच्चों के साथ स्ट्रिक्ट नहीं बल्कि फ्रेंडली होने की जरूरत है। वरना ये कोल्ड वार जेनरेशन गैप के सिवा कहीं और नहीं ले कर जाएगी। इसीलिए यह जरूरी है कि बच्चों के साथ समय गुजारा जाये। साथ समय बिताने से आप न केवल उनकी छोटी-बड़ी प्राब्लम साल्व कर सकते है बल्कि उन्हे सही-गलत के बारे में भी बता सकते है। आप उनकी अपनी बसायी अलग दुनिया में पेरेण्टस के साथ दोस्त की भूमिका भी अदा कर पाएंगे।
ऐसा कैसे हो सकता है कि इस समस्या का समाधान न हो। आज के इस जेनेरेशन गैप और कम्युनिकेशन गैप के बीच भी कुछ पेरेंटस और बच्चे ऐसे हैं जिन्हें ये शब्द छू भी नहीं पाते है। जो इन सबसे परे है। लेकिन इन पेरेंट्स का ये मानना है कि अगर आप इस गैप को भरना चाहते हैं तो पहल तो बड़ों को ही करनी होगी।

15 मार्च 2010

किसी से कम नहीं पीते


हम विस्की नहीं पीते हम रम नहीं पीते
हम जाम के नाम पर गम नहीं पीते 
अगर मिल जाये यारो की महफ़िल 
खुदा की कसम ,फिर किसी से कम नहीं पीते |


14 मार्च 2010

जिंदगी में सदा मुस्कुराते रहो

जिंदगी एक रात है ,
जिसमे न जाने कितने खवाब है
जो मिल गया वो अपना है ,
जो टूट गया वो सपना है
ये मत सोचो की जिंदगी में कितने पल है ,
ये सोचो की हर पल में कितनी जिंदगी है
तो हर पल जिंदगी हंस कर जियो ,
हर पल को जी भर के जियो
हस्ते रहो मुस्कुराते रहो |

13 मार्च 2010

तुम हो वो चिड़िया .....





कब से उड़ रही है
थकती नहीं
शाम ढले भी चहचहाती है  
घोंसले को बनाती है ,सजाती है
खुद को सवारने से पहिले
बच्चो को खिलाती है ,उड़ना सिखाती है
फिर अपने साजन का करती है इंतिज़ार
करके श्रींगार ,घोंसले को रखती है
ज्यों हो मंदिर प्यार का
जिसमे आते ही साजन
बजती है प्यार की घंटियाँ
जिसकी मधुर आवाजें 
दिलों की धडकने बन 
संसार में फैलाती है प्यार ,प्यार ,प्यार 
तुम हो वो चिड़िया ..........


राकेश मुथा जी आपने बहुत ही खूबसूरत लिखा .....
मुझे इतना पसंद आया की मैं अपने ब्लॉग पर भी पोस्ट कर दिया ...

http://seepkasapna-rakesh.blogspot.com

                              


 

12 मार्च 2010

तेरे लायक नहीं,जानता हूँ

 तेरे लायक नहीं, जानता हूँ

जो कभी नही हुआ
वो आज हो गया
जो मेरे पास था
वो दिल खो गया
तुम जानते हो या न नही, पता नहीं
पर जो खोया है मैंने
वो है तेरे पास कहीं
मिल जाये तो लौटा देना
तेरे लायक नहीं वो
 
जानता  हूँ
ले लूँगा, समझाकर रख लूँगा पास अपने ही 
जानता 


08 मार्च 2010

ख्वाहिशे..........



ख्वाहिशे....

ख़वाहिशो के मोती
इकट्ठा कर
एक ख्वाबो का घर
बना तो दिया था..
मासूम दिल नहीं जानता था
इसकी तासीर रेत के
घरोंदे की तरह है..
जो कुंठाओ के थपेडो से
ढह जायेगा..!
मैं फिर भी
उस मकडी की तरह
अथक प्रयास करती हु
की शायद कभी
इस खवाहिशो के घर को
यथार्थ की धरती
पर टिका पाऊ..
पर ना जाने क्या है..
या तो मेरी चाहत में कमी है
या मेरे सब्र का इम्तिहान...
की हर बार
मायुसिया सर उठा
मुझे और निराशाओ के
गलियारों में खीचती चली जाती है..!!
क्या ये मुनासिब नहीं..,
या फिर मैं झूठी
आशाओ में जीती हु..??
की ये खावाहिशो का घर
यथार्थ का सामना
कर पायेगा..
क्या सच में कभी
ये अपना वजूद
कायम कर पायेगा???

Anamika  ji, aapne bahut khoobsoorat likha
mujhe itna pasand aaya ki apne blog par bhi post kar diya.



 

06 मार्च 2010

हालात बदल जाते है '


वक्त के साथ हालात बदल जाते है '
अपनों तक के ख्यालात  बदल  जाते है|
जब बुरा वक्त आता है ' संजय '
खुद अपने ही जज्बात बदल जाते है'
अपनों तक के ख्यालात बदल जाते है |

03 मार्च 2010

मुझे फिर भी तुम्हारा इंतजार रहता है |



दूर जा चुके हो बहुत तुम हमसे ,
न जाने क्यों ये अहसास रहता है ,
हकीकत मे नहीं हो तुम यहाँ पर ,
पर सपनो में तेरा साया मेरे साथ रहता है ,
बहुत कोशिश की तुम्हे भूल जाने की ,
पर फिर  भी तेरे चेहरा सामने रहता है ,

 न ख़त आया है तुम्हारा ,
कहीं भूल तो नहीं गए ये अहसास रहता है ,
लोग कहते के तुम नहीं आओगे ,
न जाने क्यों मुझे फिर भी तुम्हारा इंतजार रहता है |

01 मार्च 2010

1411 बाघ बचाओ आन्दोलन

 

कैसी बिडंबना है कि पहले लोग बाघों से डरा करते थे और जंगलों में जाने से बचते थे कि कहीं से कोई बाघ न आ जाए॥! और अब आलम यह है कि लोग बन्दूक इत्यादि हथियार लेकर जंगलों का रुख करते हैं..। वो भी बाघों का शिकार करने! वही डर जो पहले इंसानों में बाघों के प्रति हुआ करता था, अब बाघों के जेहन में बैठ गया है। उन्हें लगता है कि क्या जाने कहीं से कोई इंसान आ जाए और अपनी बन्दूक का निशाना बना ले।
एक ज़माना था जब लोग बाघ से बचते थे, और आज का ज़माना है जब लोग बाघ को बचाते हैं।
देश के बाघ संरक्षित क्षेत्रों में इस वर्ष अब तक पांच बाघों की प्राकृतिक या अन्य कारणों के चलते मौत हुई है।
पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने लोकसभा में बताया है कि वर्ष 2008 में देश भर में अत्याधुनिक प्रणाली का इस्तेमाल कर हुई बाघों की अनुमानित गणना के मुताबिक भारत में।,411 बाघ [मध्य संख्या] हैं। इस बारे में न्यूनतम संख्या।,165 और अधिकतम संख्या।,657 है।  इसी तरह गणना में है।
  देश के विभिन्न बाघ संरक्षित क्षेत्रों में इस वर्ष कुल पांच बाघों की मौत प्राकृतिक या किन्हीं अन्य कारणों के चलते हुई है। इनमें दो बाघों की मौत उत्तराखंड के कारबेट में, दो की मौत असम के काजीरंगा में और एक मौत मध्य प्रदेश के पेंच राष्ट्रीय उद्यान में हुई है।
उन्होंने कहा कि वर्ष 2007 से अब तक काजीरंगा बाघ संरक्षित क्षेत्र में 16, कारबेट में 15 और मध्यप्रदेश के कान्हा में आठ बाघों की मौत हो चुकी है।
बाघ बचाओ,  बाघ बचाओ,  बाघ बचाओ,  बाघ बचाओ ..........................