05 जनवरी 2011

कल्पना नहीं कर्म ................संजय भास्कर

कल जब मैं अपने ऑफिस से घर के लिए निकला तो देखा एक काफी शॉप पर कुछ युवा मदहोश होकर धूम्रपान  कर रहे है  व नशे में डूबे  हुए है तथा थोड़ी ही देर में एक दुसरे को  गलियां  देने लगे व मार पीट पर उतर आये 
जो कुछ देर पहले तक एक दुसरे के साथ मदमस्त थे वही एक दुसरे को मारने पर उतारू है ....यह सब देख कर यह छोटी सी कविता लिखी है .....उम्मीद है आपको पसंद आएगी ............ !




काफी हाउस में बैठा
आज का युवा वर्ग
मदहोश , मदमस्त, बेखबर
कर्म छोड़ कल्पना से
संभोग करता हुआ
निराशा को गर्भ में पालता हुआ
मायूसियो को जन्म दे रहा है
तो ऐसे कंधो पर
देश का बोझ
कैसे टिक पायेगा ? जो
या तो खोखले हो गये है
या जिनको उचका लिया गया है
ए - दोस्त -
बाहर निकलो इस संकीर्ण दायरे से
कल्पना को नहीं कर्म को भोगो
अपने कंधे मजबूत करो
इन्ही कंधो को तो
यह देश यह समाज निहारता है
अपनी आशामयी, धुंधली सी
बूढी आँखों से .....................!
चित्र :- ( गूगल से साभार  )

.......................संजय कुमार भास्कर